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क्या पाकिस्तान का हश्र भगत सिंह को फाँसी देने वाले दमनकारी अंग्रेजो के समान ही होने वाला है ?

अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को पाकिस्तान के लाहौर जेल में फांसी दी थी, वो हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए जिसमे पाकिस्तान की आज़ादी भी शामिल थी फांसी पर हँसते हँसते चढ़ गए पर अंग्रेजो को सदा के लिए हिंदुस्तान से विदा कर गए !! 

और आज वही पाकिस्तान अपनी गुलामी वाली मानसिकता से उबर नहीं पा रहा है । बांग्लादेश के विभाजन को भूल गया है , बलूचिओ का दमन बदस्तूर चल रहा है, उनके शोषण और दमन को छिपाने के लिए झूठा मुद्दा बनाकर एक निरपराध और देशभक्त हिंदुस्तानी को जबरदस्ती, गैरकानूनी फांसी देना चाहता है ! 

क्या पाकिस्तान का हश्र अंग्रेजो के समान ही नहीं होने वाला है ? क्या वहा के हुक्मरान फौजी आज फिर वही अंग्रेजो वाला इतिहास दोहराना चाहते है ? क्या उनको भी पूर्वी पाकिस्तान जैसी पराजय मंजूर है ? क्या वे पाकिस्तान के और टुकड़े करने की दिशा में उन्मत है और दुसरो के इशारे पर बलूची को नष्ट करना चाहते है ? शायद उन्हें समझ नहीं है कि उनकी ये निरपराधों बलूची के साथ एक हिंदुस्तानी का दमन बहुत महंगा पड़ेगा !....................Ashok Jain

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"सौ बरस भी नहीं बीते जब लाहौर जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने और फैज़ाबाद में अशफ़ाक़ उल्लाह खान ने फांसी को गले लगाया था, वो भी केवल इसलिए क्योंकि तब हम गुलाम थे, उन्हें तो ये भी नहीं पता था की वो अपनी जान पकिस्तान के लिए दे रहे हैं या हिन्दुस्तान के लिए, उन्होनें अपनी जान आज़ादी के लिए जो दी थी और आज , पकिस्तान में एक बार फिर एक हिन्दुस्तानी को फांसी पर चढाने की तैयारी चल रही है, वो भी केवल इसलिए, क्योंकि आज हम आज़ाद हैं।
आज़ाद हुए हमें इतने बरस हो गए पर पता नहीं क्यों हम राष्ट्र के रूप में अब तक बड़े नहीं हो सके हैं, तभी, अधिपत्य और अपनत्व के बीच का अंतर नहीं समझ सके, परिणामस्वरूप, अपना क्या है और कौन है पता ही नहीं रहा।
बुद्धि के आभाव में शक्ति ही समस्या बन जाती है, संभवतः इसीलिए हनुमान को भी शाप के कारन अपनी शक्तियों को खोना पड़ा था, हमारे धर्म ने हमें उदाहरण के माध्यम से यही सिखाया है, ऐसे में, आज जब राष्ट्र के रूप में भारत और पकिस्तान दोनों ही शक्तिशाली हैं तो क्यों न हम बुद्धिमान बनने का प्रयास करें ?
कागज़ के पन्नों में खींची गयी सरहदों की लकीरों ने हमें अलग नहीं किया, हम अलग हुए तो केवल इसलिए क्योंकि हमें न तो अपने आप पर विश्वास रहा और न ही अच्छाई पर; तभी, अतीत के जिन ज़ख्मों को मरहम लगाने की ज़रूरत थी हम आज तक उसे कुरेदकर अपने अपने देश में राजनीति की दूकान चला रहे हैं।
अगर पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी जर्मनी एक हो सकते हैं हैं तो भला भारत और पकिस्तान क्यों नहीं, बात मान्यताओं, आराध्यों या धर्म के अंतर की नहीं बल्कि धर्म के विकृत समझ की है जिसने हमें एक दुसरे का पूरक बनाने के बदले एक दुसरे का प्रतिद्वंदी बना दिया है।
जब हम अखंड भारत की बात करते हैं तो अधिपत्य की नहीं बल्कि अपनत्व की बात करते हैं, ऐसे में, जब ज़रूरत दिल बड़ा करने की है तब भी अगर कोशिशें सरहद बड़ी करने की होती रहेगी, तो गलती किसकी ?
अगर भारतीय उपमहाद्वीप के सभी राष्ट्र अपनी सम्प्रभुता बनाये रखते हुए एक 'संयुक्त राष्ट्र भारत' की परिकल्पना को यथार्थ में रूपांतरित करने का प्रयास करें तो विश्व की ऐसी कोई भी शक्ति नहीं जो हमें किसी भी तरह की कोई भी चुनौती दे सके, आखिर यह इतना कठिन भी नहीं क्योंकि विविधता को एकता के सूत्र में पिरोना ही भारत का संस्कार रहा है ; जब यूरोपीय देश युरोपियन यूनियन जैसा कुछ प्रयोग कर सकते हैं तो भला हम ऐसी किसी सम्भावना से प्रतिरक्षित क्यों रहें ?
आज बात केवल एक व्यक्ति को फांसी पर चढाने की ही नहीं बल्कि दो राष्ट्रों के बीच वर्त्तमान ही नहीं बल्कि भविष्य के सम्बन्ध और संभावनाओं की भी है ; जिस गति से पकिस्तान ने श्री जाधव की न्यायिक प्रक्रिया पूरी की है, यदि उसी गति से प्रयास मुंबई आतंकवादी घटना के षड्यंत्रकारियों को दंड देकर न्याय स्थापित करने में किया गया होता तो पकिस्तान ने निश्चित रूप से भारतियों का दिल जीत लिया होता।

भारत युद्ध का पिपासा नहीं और इसीलिए यह हमारे लिए आखरी विकल्प होगा, पर जब युद्ध अपरिहार्य हो तो हम केवल लड़ने के लिए नहीं बल्कि जीतने के लिए लड़ेंगे; फिर हम बचें न बचें, दुश्मन नहीं बचेगा इस बात का आश्वासन इस महान देश की सैन्य शक्ति है।
मैं प्रलय की परकल्पना नहीं करना चाहता और इसलिए युद्ध का पक्षधर नहीं;मानवता का उत्थान और सृष्टि का कल्याण, यही तो किसी भी धर्म का मूल उद्देश्य है, फिर धर्म चाहे जो हो , ऐसे में , जब आवश्यकता मित्र बनाने की हो तो शत्रु बनाने का क्या तर्क हो सकता है आज यह दोनों ही राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्षों को सोचना चाहिए।
क्यों न विश्वास और उम्मीद के भरोसे एक नयी शुरुआत की जाए ; प्रतीकात्मक राजनीति के इस दौर में किसी को जीवन दान देने से बेहतर शुरुआत क्या होगा ; अच्छा तो यही होगा की दोनों राष्ट्र कश्मीर जीतने की नहीं बल्कि दोनों देशों की जनता के दिल को जीतने का प्रयास करें; अंतिम निर्णय तो उन्हीं को करना है जिन्हें उसका अधिकार प्राप्त हो ;
भारत ने तो जिन्नाह के घर तक को संभल कर रहा है, तो क्या आज पकिस्तान भारत के एक नागरिक को न्याय सुनिश्चित नहीं कर सकता ?"