क्या किसी भी सेकुलर पार्टी के नेता ने गरीब मुस्लिमों को इफ्तार पार्टी कभी दी है ?

राजनीतिक दलों के प्रमुख इफ्तार पार्टियों में बड़ी-बड़ी मुस्लिम हस्तियों और सेकुलर राजनीतिक दलों के नेताओं को आमंत्रित करते हैं। इसी बहाने यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हम मुस्लिम समुदाय के सच्चे हमदर्द हैं और उनके मसीहा हैं। बहुधा भाजपा नेताओं को इन पार्टियों में आमंत्रित नहीं किया जाता। भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है और इस पार्टी के पक्ष में देश के सर्वाधिक मतदाता मतदान करते हैं, इसके बावजूद भी भाजपा नेताओं को अछूत ही माना जाता है। चाहे भाजपा को देश की जनता ने शासन करने का अधिकार दे दिया हों, पर इनकी नज़रों में वे अछूत ही रहेंगे। लोकसभा चुनावों में सेकुलरिजम का सिक्का खोटा साबित होने के बाद भी ये उसे फिर चलाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि एक समुदाय को रिझाने की जितनी अधिक कोशिश की जायेगी, उससे यदि दूसरा समुदाय रुष्ट हो गया, तो सभी सेकुलर राजनीतिक दलों को अपना अस्तित्व बचाना भी मुश्किल हो जायेगा।


                                     
                                                     क्या इन्हें भी कोई इफ्तार की दावत पे बुलायेगा..??
रमजान के पवित्र महीने में संयम रख, अपने विचारों को शुद्ध कर रुह को पवित्र करने की कवायद की जाती है। उपवास और इन्द्रियों को नियंत्रित करने के कठोर उपवास जैन समुदाय भी करता है। भाद्रपद माह के आठ-दस दिन तक देह के शुद्धिकरण और संयमित जीवन जीने के लिए जैन समुदाय पर्यूषण पर्व मनाता है। जैन समुदाय भी अल्पसंख्यक समुदाय है। क्या सारे सेक्युलर नेता पर्यूषण पर्व में जैन मंदिरों में जा कर पूरे देश से अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगते हैं ? इसी तरह अल्पसंख्यक सिख समुदाय के धार्मिक आयोजनों में गुरुद्वारे जा कर पव़ित्र गुरुग्रन्थ साहेब के आगे मथा टेक कर अपने पापों के लिए क्या क्षमा मांगते हैं ? प्रश्न उठता है कि यदि अल्पसंख्यक समुदाय का हमदर्द बनना ही धर्मनिरपेक्षता कहलाता है, तो एक ही धर्म से जुड़ी परम्पराओं में आस्था प्रकट करने का भोंड़ा प्रदर्शन क्यों किया जाता है ?
जिन लोगों का अपने मन पर संयम नहीं। जिनके विचार गंदे हैं। जिनके कर्म अशुद्ध हैं। ऐसे लोग यदि इफ्तार पार्टियों का आयोजन करते हैं, तो वह ढ़ोंग ही कहलाता है, क्योंकि जिनकी रुह ही अपवित्र है, वे रमजान का मतलब ही नहीं जानते। यदि सही में इस आयोजन की सार्थकता समझते हैं, तो मुस्लिम मोहल्लों में जा कर इफ्तार की दावते गरीब मुस्लिम परिवारों को क्यो नहीं देते ? क्या मुस्लिम मोहल्लों में इफ्तार पार्टियां करना निषेध है ? अच्छा होता ऐसी दावतों में मोहल्लों के हिन्दू और मुस्लिम दोनों परिवारों को आमंत्रित किया जाता। दिलों को जोड़ने की ऐसी कवायद और क्या हो सकती है ? परन्तु ऐसा करने से सियासत थोड़े ही होती है। राजनीतिक दलों के लिए तो रसूख वाली बड़ी हस्तियां ही काम की है, गरीब मुस्लिम नहीं। हस्तियों को अपने पक्ष में कर लिया जाय, तो गरीब मुस्लिम तो उनके आदेशों से थोक वोटों की मंड़ी वैसे ही बन जायेंगे।
             
                जालीदार टोपी पहन कर अफ्तार पार्टी मनाने वाले सेक्युलर हिन्दुओ जयचद की औलादो 
                   कभी गरीबो को भी इफ्तार पार्टी में बुला लेते ।" सो जाते है वो रोज मालिक की 
                             डांट सुनकर    ..,सबके नसीब में माँ की लोरियाँ नहीं होती..."



              

सेकुलर जमात में एक और अति उत्साही शख्स शामिल हुए हैं। ये हैं- अरविंद केजरीवाल। मान्यवर ने अपनी पार्टी की टोपी उतार कर मुस्लिम टोपी पहन ली और पाकिस्तान के हार्इकमिश्नर से ले कर शीला दीक्षित को भी अपनी इफ्तार पार्टी में आमंत्रित किया। ये वे ही शीला दीक्षित हैं, जिन्हें गालियां दे कर और जिन्हें महाभ्रष्ट घोषित कर दिल्ली के हीरो बने थे। जन- सभाओं में उन्हें जेल भेजने की कसमे खाते थे, पर इफ्तार की दावत उनके साथ मिल कर उड़ा रहे हैं। ऐसे बहरुपियें और निहायत झूठें और मतलबी लोग कोर्इ आयोजन करते हैं, तो उसे ढोंग नहीं तो और क्या समझा जा सकता है ? इन महाशय की इफ्तार पार्टी उस दिन हुर्इ, जिस दिन दिल्ली की मुस्लिम बस्तियों में बरसात का पानी भर गया था। लोग परेशानी में थे, जिनसे मिलने और उनकी तकलीफो से रुबरु होने की उन्हें फुर्सत नहीं थी, परन्तु पाकिस्तानी हार्इ कमिश्नर और बड़े- बड़े नेताओं के साथ हंस-हंस कर बात करने का उनके पास समय था। केवल मुस्लिम टोपी पहन लेने से कोर्इ उस समुदाय का हमदर्द नहीं बन जाता, बल्कि उनकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ उसके सुख दुख में साथ खड़े रहने वालों को ही सच्चा हमदर्द माना जाता है। दुखद सच्चार्इ यह है कि ऐसे ढोंगी और पांखड़ी व्यक्ति ही जनता को मूर्ख बना कर राजनेता बन जाते हैं और सत्ता सुख का जम कर मजा लूटते हैं।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह होता है कि सभी धर्म की परम्पराओं और सिद्धान्तों का मन से आदर करो, किन्तु आस्था उस धर्म में ही रखों जिस कुल में आपका जन्म हुआ है, क्योंकि वह धर्म आपकी पहचान के साथ जुड़ा होता है। यद्यपि सभी को अपने धर्म से जुड़ी धार्मिक परम्पराओं को निभाने की बाध्यता नहीं होती, किन्तु दूसरे धर्म की परम्पराओं को निभाना उसके लिए वर्जित माना जाता है। कोर्इ व्यक्ति किसी दूसरे मजहब की परम्पराओं को यदि दिल से स्वीकार कर लेता है, तो उसे वह धर्म स्वीकार कर लेना चाहिये। अर्थात केजरीवाल को मुस्लिम टोपी पहनने के पहले इस्लाम भी कबूल कर लेना चाहिये, क्योंकि यदि आप पार्टी की टोपी लगाने से आप पार्टी का कार्यकर्ता कहलाता है, तो मुस्लिम टोपी पहनने से वह मुस्लिम ही कहलाता है। एक व्यक्ति दो पार्टियों का सदस्य नहीं बन सकता, उसी तरह एक ही व्यक्ति दो धार्मिक परम्पराओं का पालन नहीं कर सकता। यदि वह अपना धर्म नहीं छोड़ता है और दूसरे धर्म की परम्पराओं को स्वीकार कर लेता है, तो वह निश्चित रुप से ढोंगी है। अत: मुस्लिम टोपी पहन कर केजरीवाल ने इस्लाम कबूल नहीं किया, इसका मतलब है- उनकी न तो हिन्दू धर्म में आस्था है और न ही मुस्लिम धर्म में। वे केवल धार्मिक परम्पराओं को ऊपरी मन से स्वीकार कर अपनी सियासत चमकाना चाहते हैं।

              
          Riya Khanna : " सो जाते है वो रोज मालिक की डांट सुनकर..,सबके नसीब में माँ की लोरियाँ नहीं होती..."

केजरीवाल तो सेकुलर राजनीति के नये खिलाड़ी है। वे उन्हीं नेताओं का अनुशरण कर रहे हैं, जो भारत की राजनीति में वर्षों से जमे हुए हैं और इफ्तार पार्टियां उनकी मजहबी सियासत का शगल बन गर्इ है। यह भी सही है कि किसी भी सेकुलर पार्टी के नेता ने गरीब मुस्लिमों को इफ्तार पार्टी नहीं दी, जिसका सीधा मतलब है- इफ्तार पार्टियां सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम समुदाय के प्रति हमदर्दी दिखाने और उनका मसीहा बनने के लिए किया गया ढो़ग है, जो वोटो की सियासत के अलावा और कुछ नहीं हैं।....................Ganesh Purohit