आज आर्थिक लाभ आकांक्षा वाले बुद्धिजीवियों की एक ही समस्या है और उस समस्या का नाम है नरेंद्र मोदी।




अब आप क्या कहेंगे......अवार्ड वापसी षड़यंत्र की पोल-खोल (तवलीन सिंह) : बोलने-लिखने की जितनी आजादी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देखने को मिली है, मैंने पहले कभी नहीं देखी। इंदिरा गांधी के जमाने में इमरजेंसी के वक्त तो प्रेस पर सेंसरशिप थी। और इमरजेंसी के बाद भी प्रधानमंत्री के खिलाफ लिखने की हिम्मत करने वाले पत्रकार तिहाड़ जेल पहुंचा दिए गए थे। 

राजीव गांधी के शासन में जब एक अखबार ने बोफर्स मामले में लिखा तो सौ से ज्यादा टैक्स के मुकदमे इस अखबार पर लगाए गए थे। सोनिया जी के अघोषित प्रधानमंत्री होने पर जब मैंने एतराज जताया तो मेरे कॉलम को अखबार से हटाने की कोशिश हुई और मेरे दोस्तों को तकलीफ दी गई।पर तब हमारे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को अपनी आवाज उठाने की याद नहीं आई।अगर उठाते तो वे सम्मान, वे विदेशों के दौरे, वे लटयंस दिल्ली की गलियों में आलीशान कोठियां कहां से मिलने वाले थे ? 

मतलब यह है कि हमारे बुद्धिजीवी बहुत सोच-समझकर विरोध करते हैं। मोदी सरकार ने उनकी किसी किताब या फिल्म पर प्रतिबंध नहीं लगाया, लेकिन फिर भी कहते हैं कि उनकी आजादी खतरे में है, क्योंकि कर्नाटक में कलबुर्गी को मार दिया गया। लेकिन जब केरल में जिहादियों ने प्रोफेसर जोसेफ के हाथ काट डाले थे, तब ये साहित्यकार कहाँ थे? और जब पंडितों को कश्मीर घाटी से बेदखल किया गया, तब से लेकर आज तक हमारे बुद्धिजीवी अपना मुंह बंद करके बैठे हैं।

आज उनकी समस्या एक ही है और उस समस्या का नाम है नरेंद्र मोदी। जब तक वे प्रधानमंत्री हैं तब तक ऐसे विरोध-प्रदर्शन होते रहेंगे, क्योंकि हमारे देश के बुद्धिजीवियों को दशकों से कांग्रेस पार्टी ने बड़े प्यार से पाला है। उनको न सिर्फ इज्जत और सम्मान मिला है, नौकरियां, कोठियां, सरकारी ओहदे भी मिले हैं, सो मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उनकी पूरी दुनिया लुट गई है।

पहिले सरकारों से सेक्युलरिज्म के कवच के पीछे खूब आर्थिक लाभ भी मिलता था। जब इन लोगों की किताबें नहीं बिकती थीं तो दिल (और तिजोरियां) खोलकर मानव संसाधन विकास मंत्री महोदय साथ दिया करते थे। राजीव गांधी ने अर्जुन सिंह को इस मंत्रालय में बिठाया तभी से बुद्धिजीवियों को पालने-पोसने की परंपरा चली आ रही है। कभी दिल्ली में कोठी देने का काम होता था, तो कभी किसी सरकारी संस्था की अध्यक्षता मिल जाया करती थी। 

ऊपर से प्रधानमंत्री निवास या दस जनपथ से हर दूसरे-तीसरे दिन किसी विदेशी मेहमान से मुलाकात करने के लिए न्योते आते थे। इसका फायदा यह होता था कि विदेशी मेहमान इन लेखकों को अपने वतन आने का दावत दे दिया करते थे और दौरे का तमाम खर्चा कोई न कोई विदेशी सरकार उठाया करती थी। तमाम साहित्यकार, कलाकार, इतिहासकार और अन्य किस्म के बुद्धिजीवी कई-कई बार इस तरह के विदेशी दौरों पर गए हैं। इसलिए झगड़ा सिर्फ विचारों या विचारधारा का नहीं है, झगड़ा सीधे तौर पर रोजी-रोटी का है।