एक कड़वा सत्य और उससे भी कड़वा अर्थ : "बहुत गुस्सा आता है कि गौ रक्षकों के भेष में बहुत से लोग अपनी दुकानें चला रहे हैं।

       
     
एक कड़वा सत्य और उससे भी कड़वा अर्थ अगर आप जमीनी सत्य पर जरा गौर करे ! 
 " बहुत गुस्सा आता है कि गौ रक्षकों के भेष में बहुत से लोग अपनी दुकानें चला रहे हैं। "

गुस्सा आना चाहिए और विवेक मिश्रा को भी बहुत गुस्सा आता है। यह सुनकर और भी बहुत गुस्सा आता है कि गौ रक्षकों के भेष में बहुत से लोग अपनी दुकानें चला रहे हैं। उससे भी ज्यादा गुस्सा इस बात पर आता है कि कानूनों के होते हुए लोगों को ज़रुरत क्यों पड़ती है गौ रक्षक या गुलाबी गैंग बनाने की ?

मुझे गुस्सा आता है कि कानून होने के बावज़ूद , निर्भया जैसे कांड देश की राजधानी में हो जाते हैं। उसके बाद नए सख्त और नपुंसक कानून बनाये जाते हैं , लेकिन NH 91 होने बंद नहीं होते। यदि गुस्सा आने की वजह सिर्फ दलितों की पिटाई है तो किसी को भी नीचे दिए गए लिंक्स में पिछले चार वर्षों में हुए दलित लड़कियों के बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की खबर पढ़/सुन कर जानलेवा गुस्सा आना चाहिए। क्यों नहीं आया गुस्सा इन दलित लड़कियों के बलात्कारों और हत्याओं पर ?

रोहित वेमुला की आत्महत्या और गुजरात में चार दलितों के पीटे जाने पर अपने कपडे फाड़ कर चिल्लाने वालों को इन लड़कियों जाती हुई जान और आबरू पर गुस्सा क्यों नहीं आता ? राजनीती का मानसिक स्तर इस हद तक गिर गया है कि एक महिला होते हुए भी कांग्रेस की नेत्री "रेणुका चौधरी " कहती हैं कि "रेप तो होते रहते हैं" ।

जिस देश में महिलाओं की आबरू के नुचने को इतने हलके में उड़ा दिया जाये वहाँ गायें और हिरन की जान की कीमत क्या होगी। जिस देश में निशृंस बलात्कारियों को अदालत से छूट जाने पर रुपये 10000 दिए जाते हों वो दूसरे सम्भावित नाबालिग बलात्कारियों के लिए क्या नज़ीर पेश करेगा। 




क्यों नहीं लेंगे लोग क़ानून को अपने हाथ में जब लखनऊ की नाबालिग बलात्कार की पीड़िता को 15 साल लग जाते हैं अदालत से न्याय मिलने में। क्यों नहीं लेंगे लोग क़ानून को अपने हाथों में जब हरियाणा में बलात्कार की पीड़िता को दो साल बाद सजा न मिलने के कारण उसके वही आरोपी दुबारा बलात्कार करते हैं। 



क्यों नहीं लेंगे लोग क़ानून को अपने हाथों में जब दिल्ली की बलात्कार पीड़िता धमकियों से डर कर आत्महत्या कर लेती है। क्यों नहीं लेंगे लोग कानून अपने हाथ में जब "अरुणा शानबाग" का आरोपी भारतीय कानून द्वारा आज़ाद ज़िन्दगी का हक़दार हो जाता है और "अरुणा" 40 साल तक रोज़ तिल तिल मरती है। आप और बहुत से लोग अपने गुस्से को इसलिए जज़्ब कर जाते हैं क्योंकि बलात्कार और गौहत्या के 80% मामलों में उस नमक हराम कौम का हाथ होता है जो विद्यालयों में राष्ट्रगान नहीं बजने देने का फरमान ज़ारी करते हैं। 

किसी को भी गुस्सा आना चाहिए उस हरामखोर मीडिया पर जो हर घटना को बिना जांचे दलित और सवर्ण का रंग दे देता है। उससे भी ज्यादा गुस्सा तब आना चाहिए जब घटना की हकीकत कुछ और निकलती है और मीडिया अपने आँख कान और मुंह बंद कर लेता है। 

गुस्सा तब आता है जब चर्च तोड़े जाते हैं तो उन्हें पूरी सुरक्षा का आश्वासन मिलता है और भगवा आतंकवाद का नारा बुलंद किया जाता है। लेकिन जब चर्च तोड़ने वाले ईसाईयों के गुर्गे निकलते हैं तब सबके मुंह पर M Seal लग जाती है। गुस्सा तब आता है जब मंदिर में मूर्तियां तोड़ने वाले को मानसिक विक्षिप्त करार दिया जाता है लेकिन कोई अस्वाशन नहीं मिलता कि मूर्तियां तो छोड़िये बहुसंख्यांकों की जान की सुरक्षा भी की जाएगी। 

गुस्सा तब आता है जब गौतस्करों को पीटने की घटना को तो प्राइम टाइम पर दिखाया जाता है लेकिन जब गौतस्कर  अपने कर्तव्य का निर्वहन करने वाले पुलिस के सिपाहियों को बेख़ौफ़ हो कर रौंद जाते हैं और कहीं से कोई आवाज नहीं उठती। 

मैंने सुना है कि एक वक़्त था जब इस देश में नारियाँ और गौ पूजी जाती थी , मैं दोहरा रहा हूँ ,‪#‎पूजी_जाती_थी‬ , लेकिन गुस्सा तब आता है आज भारत में न नारी पूजी जाती है , न मैय्या ------- मैय्या में जन्मदायनी माँ , पापनाशिनी गंगा और जीवनदायनी गैय्या तीनो ही सम्मिलित हैं। इनके बलिदान के उपरान्त ही यदि ‪#‎बेटा_विकास‬ घर आएगा तो यकीन मानिये , इस संस्कारहीन ,भौतिकता की दौड़ में शामिल समाज को ऐसा बेटा भौतिक सुख तो शायद दे दे लेकिन संस्कारों और मानसिक शान्ति के नाम पर वो आपको दिवालिया कर देगा। 

 
विवेक मिश्रा की वाल से ।