अगर आज यह युवा देश सामाजिक व् मानसिक कुंठा से ग्रषित है तो कारण हमारी शिक्षा नीति और पद्धति की त्रुटियां है !


"अगर कल्पनाओं की सोच ने ही ज्ञान को जन्म दिया है और किसी भी नए की सम्भावना को जन्म देने की क्षमता कल्पनाओं में ही होती है तो क्या हमारे आज की शिक्षा व्यवस्था में छात्रों की कल्पनाशक्ति के विकास का कोई प्रावधान है?? अगर नहीं, तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह स्वाभाविक है !

स्वयं की अनभिज्ञता का ज्ञान ही इस संसार का परम ज्ञान है पर जब से हम मिथ्या आत्म अभिमान के प्रभाव में अपने अनुभव के ज्ञान से ज्ञान की सीमा निर्धारित करते रहेंगे, हम सीखने से प्रतिरक्षित रहेंगे। 

आज यह युवा देश अगर सामाजिक व् मानसिक कुंठा से ग्रषित है तो केवल इसलिए क्योंकि हमारी शिक्षा नीति और पद्धति में कई त्रुटियां है जिस कारन व्यवस्था द्वारा नयी पीड़ी के निर्माण में किया जाने वाला हर प्रयास अप्रभावी सिद्ध हो रहा है। 


अगर वृद्ध वही जो सीखने और बढ़ने से प्रतिरक्षित हो तो आज हम एक युवा देश होते हुए भी वृद्ध मानसिकता को क्यों जी रहे हैं, यह सामाजिक चिंतन का विषय है। 

सामाजिक जीवन के किसी एक पहलू पर प्रयास करने से सामाजिक व्यवस्था असंतुलित हो जायेगी और प्रयास को अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होंगे इसीलिए आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक ढांचों में मूलभूत परिवर्तन करना ही आज समय की आवश्यकता है; ऐसा इसलिए क्योंकि केवल सामाजिक समस्याएं ही नहीं बल्कि उनके समाधान भी एक दुसरे से जुड़े होते हैं ; विविध क्षेत्रों में हो रहे प्रयासों के असंतुलन से समस्या सुलझने के बजाये और विकट हो सकती है। जब तक सामाजिक जीवन के सभी आयामों के बुनियादी ढांचों में एक योजना बद्ध तरिके से समन्वित व् संतुलित प्रयास न किये जाएँ किसी भी प्रयास का व्यापक प्रभाव होना कठिन है; इस दृष्टि से सामाजिक नेतृत्व का निर्णय समाज का बहोत बड़ा दायित्व है जिसकी गलती से व्यवस्था तंत्र की शक्तियों का दुरूपयोग उन्हें प्रभावहीन व् सामाजिक समस्या बना देता है। 

कोई भी समाज अपने लिए जैसा नेतृत्व तय करेगा उस राष्ट्र की नियति वैसी ही होगी, यही किसी भी सामाजिक विकास की प्रक्रिया में सामाजिक नेतृत्व की भूमिका का महत्व है, ऐसे में, यह हमें सोचना है की एक राष्ट्र के रूप में हम अपने भविष्य को कैसा देखना चाहते हैं।"