“परिवर्तन की कोई भी प्रक्रिया तब तक प्रभावी तथा प्रभावशाली नहीं हो सकती जब तक प्रयास की धुरी परिस्थितियों की विषमता के बुनियाद पर केंद्रित न हो;अगर परिवर्तन ही इस संसार का नियम है तो स्वाभाविक है की इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं, ऐसे में, गतिशीलता और परिवर्तन का अंतर जानना आवश्यक हो जाता है।
समय गतिशील है और अगर समय की प्रवाह को ही हम परिवर्तन का पर्याय मान लेंगे तो जीवन की भी परिस्थितियों को बदलने के लिए हम समय पर आश्रित हो जाएंगे जिसके परिणामस्वरूप, अनुकूलन के प्रभाव में परिस्थितियों की विषमता को भी सामान्य मानकर उसे स्वीकार कर लिया जाएगा।
सृष्टि में प्रवाह ही ऊर्जा का स्त्रोत है और स्थायित्व कुंठा का कारन फिर बात हवा की करें, पानी की या रौशनी की; इस दृष्टि से जीवन भी कोई अपवाद नहीं।अगर गतिशीलता ही समय की प्रवृति है तो उस प्रवाह को कैसे विनियमित कर आवश्यक परिवर्तन में रूपांतरित किया जा सकता है यह सोचने का विषय है।ऐसे किसी भी प्रयास की सफलता के लिए यह जानना निर्णायक होगा की परिवर्तन किसका, कैसे और किसलिए।.
परिवर्तन का पात्र तो धर्म भी रहा है, तभी लक्ष्मण भी एक भाई थे पर श्री राम के साथ वनवास जाना उन्होनें अपना धर्म समझा और भीम भी एक भाई थे जिन्होनें कुरुक्षेत्र के धर्म युद्ध में अपने सौ भाइयों को मृत्यु के घाट उतार दिया; हमारी संस्कृति ने दोनों को ही महान और आदरणीय माना है; ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी संस्कृति ने हमारे संस्कारों को यह सिखाया है की धर्म भी वही हो सकता है जो व्यापक रूप से सृष्टि के लिए कल्याणकारी और जीवन के लिए श्रेस्कर हो। और इसीलिए, कोई भी परिवर्तन की प्रक्रिया तभी सार्थक हो सकती है जब वह धर्मसंगत और वृहद् दृष्टि से कल्याणकारी हो।


अगर सामाजिक व्यवस्था बदलनी है तो समाज में व्यक्ति की सोच बदलनी पड़ेगी, अगर सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन चाहिए तो सामाजिक मानसिकता को बदलना पड़ेगा, अगर राजनीति बदलनी है तो नेता बदलना होगा, अगर देश के विकास की दिशा बदलनी है तो देश का नेतृत्व बदलना होगा और अगर यथार्थ के परिदृश्य को बदलना है तो वर्त्तमान के दृष्टिकोण को बदलना पड़ेगा;
अगर हम परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस कर पाने में सक्षम नहीं तो इसका तात्पर्य यही होगा की हमारा सय्याम ही आज हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गयी है और सामाजिक जीवन में स्थायित्व ही हमारे मानसिक कुंठा का कारन!
असंभव कुछ भी नहीं, बस, समय की आवश्यकताओं को स्वीकार करना पड़ेगा ; यह किसी व्यक्ति विशेष अथवा दल, या गुट के लिए कर पाना संभव नहीं, इसके लिए समाज को संगठित हो कर एक शक्ति में परिणित होना होगा; क्या आज हम इसके लिए तैयार हैं, अगर हाँ, तो आवाज दो…….. !"...................Mohan Bhagwat ji