"समय की गतिशीलता के कारन परिस्थितियों के सन्दर्भ के परिवर्तन के प्रभाव में जीवन मूल्यों और आदर्शों की व्याख्या और परिभाषा का बदलना स्वाभाविक है, आदर्श परिस्थिति में यही व्यावहारिक भी होगा, और इसलिए , सही और गलत के अंतर को स्पष्ट करने के लिए विवेक का विकास आवश्यक है ;
सामाजिक विवेक के विकास की दृष्टि से शिक्षा के प्रावधान ही पर्याप्त नहीं क्योंकि शिक्षा के ज्ञान का व्यक्तिगत प्रज्ञा द्वारा बुद्धि में रूपांतरित करने के लिए न केवल उसके व्यावहारिक प्रयोग की आवश्यकता होगी बल्कि व्यक्ति में सोचने की क्षमता और कल्पनाशीलता का विकास करना भी आवश्यक होगा; इस दृष्टि से वर्तमान की स्वीकृत शिक्षा पद्धति की त्रुटियों को देखते हुए सामाजिक विवेक के विकास के लिए उस पर आश्रित रहना किसी भी समाज के लिए घातक होगा।
सामाजिक विवेक के स्तर का प्रभाव दैनिक जीवन में प्राथमिकताओं के निर्धारण पर भी पढता है और तब न केवल मूल्य महत्व का निर्धारक बन जाता है बल्कि व्यक्ति की परिधि भी सीमित हो जाती है ; विवादों के आधार पर विषय की महत्ता का निर्धारण होता है और समय की आवश्यकताओं पर स्वार्थ, लाभ व् लोभ हावी पड़ता है। उदाहरण देकर समझाता हूँ कैसे ,
ये तो सभी मानेंगे की स्त्री और पुरुष में प्राकृतिक रूप से अंतर है और दोनों की ही अपनी अपनी विशिष्टताएं भी, ऐसे में, अगर महत्व के लिए तुलनात्मक दृष्टिकोण को आधार मान लिया जाए तो जिन्हें एक दुसरे के पूरक बनना था वो एक दुसरे के प्रतिस्पर्धी बन जाएंगे !
महिला शशक्तिकरण और उनकी आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित करने वाले किसी भी प्रयास का समाज में समर्थन होना चाहिए पर समाज के महिला वर्ग में हीन भावना के प्रचार प्रसार द्वारा उनको असुरक्षित बनाकर उन्हें पुरुष बनाने के किसी भी प्रयास की समीक्षा आवश्यक है; ऐसा इसलिए क्योंकि आधुनिकीकरण का तात्पर्य अपने जीवन मूल्यों को युगानुकूल बनाना होना चाहिए न की पाश्चात्य संस्कृति को आधुनिक मानकर उनका अनुसरण। दुसरे के जैसे बनने के किसी भी प्रयास में हम अपनी वास्तविकता व् विशिष्टता खो देंगे , तो क्यों न हमें अपने जैसे बनने का प्रयास करना चाहिए,फिर बात चाहे व्यक्ति की करें, समाज के किसी वर्ग की या फिर राष्ट्र की !
समाज में लड़कियों को शिक्षित, आत्मविश्वासी व् आत्मनिर्भर बनाने का हर प्रयास होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम कर सके पर किसी भी परिस्थिति में उनमें इतना विवेक का भी विकास होना चाहिए जिससे वो अपनी प्राथमिकताओं का सही निर्धारण कर सकें;
पुरुष और स्त्री दोनों में ही अपने अलग और विशेष गुण हैं और जब तक दोनों एक दुसरे के पूरक न हों ..न ही परिवार और न ही समाज बेहतर भविष्य के लिए आस्वश्त हो सकता है; उल्टा दोनों के बीच की प्रतिस्पर्धा समाज में घर्षण को ही जन्म देंगी।
अगर इसे मूल्य के आधार पर महत्व के निर्धारण की व्यावहारिक मानसिकता नहीं कहें तो और क्या ...जिसके प्रयास में आज पैसा इतना महत्वपूर्ण हो गया है की वर्तमान अपने परिवार की भावी पीढ़ी को नौकरों के भरोसे पालने को विवश है; जब समाज में एक ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जिन्हें पारिवारिक मूल्यों का महत्व ही न पता हो तो राष्ट्र का भविष्य अवश्य ही सामाजिक चेतना के लिए चिंता का कारन बनेगा।
यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं की मैं महिलाओं के नौकरी करने का विरोधी नहीं बल्कि पारिवारिक मूल्यों के संरक्षण का समर्थक हूँ, मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है की समाज के पुरुष और महिला वर्ग अगर अपनी अपनी नैसर्गिक विशिष्टताओं से अवगत होकर एक दुसरे के पूरक बनें, न की प्रतिस्पर्धी, तो समाज न केवल अपने प्रयास से समय और श्रम की उपयोगिता सिद्ध कर सकेगा बल्कि धन ही नहीं ...अपने लिए रोजगार के सृजन कर पाने में भी सक्षम होगा।
धनोपार्जन आवश्यक है और किसी भी प्रगतिशील समाज में एक संसाधन के रूप में महत्वपूर्ण भी; अगर समय और उत्पादक श्रम का संयोग ही धन को जन्म देता है तो क्यों न श्रम की उत्पादकता को बढ़ने का प्रयास किया जाए ...क्योंकि समय तो हर दिन ऐसे भी सीमित है।
पर क्या करें, जब से विवाद की महत्ता को ही विषय के निर्धारण का अधिकार प्राप्त हुआ, समाज के लिए महत्वपूर्ण विषय भी विवादित हो गया; इसका दोषी सामाजिक विवेक का स्तर नहीं तो और कौन ? क्यों न प्रयास को सामाजिक विवेक के विकास पर केंद्रित किया जाए , ऐसा करने से न केवल कई विवाद बल्कि कई सामाजिक समस्याएं भी अपने आप समाप्त हो जाएँगी ; इस विषय में आप क्या कहते हैं ?”........................
Mohan Bhagwat ji