सामाजिक चिंता का विषय जीवन शैली के रूप में हिंदुत्व की गुणवत्ता होनी चाहिए न की हिंदुओं की जनसंख्या !

"जीवन में सत्य की स्वीकृति के लिए सर्वदा उद्धत और असत्य के परित्याग के लिए सदैव तत्पर रहने की शिक्षा ने ही जीवन शैली के रूप में हिंदुत्व को विशिष्टता प्रदान की है जिसके व्यावहारिक प्रयोग से जीवन अपने कर्मों द्वारा न केवल अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकता है बल्कि अपने सीमित समय में दिव्यता की अनुभूति भी प्राप्त कर सकता है।
एक जीवन शैली के रूप में हिंदुत्व ने सदैव ही परिस्थितियों के माध्यम से समय के समक्ष आदर्श का व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और अपने इसी प्रवृति के कारन एक ईश्वर को मानते हुए भी इस जीवन शैली ने कई अवतारों को जन्म दिया है।
ज्ञान ही हिंदुत्व का बल रहा है जो इसे गतिशीलता और चिर नूतनता प्रदान करता रहा है ; समय के संघर्ष और परिस्थितियों की चुनौतियों ने जब भी इसकी परीक्षा ली है, प्रक्रिया के परिणाम ने इस जीवनशैली को और भी तेजस्वी और यशस्वी बनाया है।
यही कारण है कि एक जीवन शैली के रूप में हिंदुत्व के लिए संख्याबल से अधिक व्यावहारिक जीवन में कर्मों के गुणवत्ता का महत्व है। आज जब हिंदुत्व ही विकृत है और अपनी वास्तविकता को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत भी, ऐसे में, महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए ? हिंदुओं का संख्याबल या जीवनशैली के रूप में हिंदुत्व की गुणवत्ता ?
आज हिंदुत्व कई विकारों से संक्रमित है और ऐसे में सामाजिक चेतना के चिंता का विषय अगर हिंदुत्व के पुनरुत्थान के बजाये हिंदुओं की जनसंख्या है तो यह सामाजिक विवेक की ही समस्या है जिसके प्रभाव में हिंदुत्व ने न केवल अपनी गुणवत्ता बल्कि अपना वैचारिक स्तर भी खो दिया है, तभी, सामाजिक चिंताओं की प्राथमिकताएं भी भ्रमित हैं।
जब आवश्यकता है की सामाजिक विवेक का विकास हिंदुत्व के स्तर तक किया जाए, अगर तब, समाज अपने सीमित विवेक से हिंदुत्व को परिभाषित करने का प्रयास करे, तो हिंदुत्व जीवन शैली नहीं बल्कि जीवन की समस्या प्रतीत होगी, दुर्भाग्यवश, यही तो आज हो रहा है।
जात पात- भेद भाव, वर्तमान में यह हिंदुत्व को कलंकित करने वाले विकार हैं और ऐसा इसलिए क्योंकि अपने वर्ण व्यवस्था द्वारा समग्र रूप से सामाजिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए हिन्दू जीवन शैली ने व्यक्तिगत गुणों के आधार पर श्रम के विभाजन का प्रयास किया था पर जब से व्यक्ति के गुण और कर्म के बजाये जन्म को वर्ण का आधार मान लिया गया, समाधान ही समस्या बन गयी।
इसे समाज में व्याप्त अज्ञान का प्रभाव ही कहेंगे जिसके कारन आज व्यक्ति मिथ्या अभिमान से ग्रसित व् महत्व के लिए तुलनात्मक दृष्टिकोण पर आश्रित है, उसे अपने विशिष्टता का बोध जो नहीं; ऐसे में, जब एक जीवनशैली के रूप में हिंदुत्व अपने वैचारिक पतन के निम्नतम स्तर को जी रही हो तो सामाजिक चिंता का विषय जीवन शैली के रूप में हिंदुत्व की गुणवत्ता होनी चाहिए न की हिंदुओं की जनसंख्या !
ऐसे इसलिए, क्योंकि सूर्य की अनुपस्थिति में ही आकाश में चाँद और तारों के अस्तित्व का प्रभाव होता है; सूर्य के पास संख्याबल नहीं, वह अकेला है… पर उसके प्रकाश की आभा अनगिनत सितारों के अस्तित्व को प्रभावहीन बना देते हैं ;
कहने का तात्पर्य केवल इतना है की अगर सामाजिक प्रयास का केंद्रबिंदु हिंदुओं की जनसँख्या के बजाये हिंदुत्व की गुणवत्ता पर केंद्रित हो तो सामाजिक घर्षण के कई कारन अपने आप समाप्त हो जायेंगे पर ऐसा तभी हो सकता है जब प्रयास को प्रेरित करने वाली चिंताओं का विषय सही हो; क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?"