संगठित हो बंगाल की जनता ने ललकारा है,
बंगाल को फिर ''सोनार बांग्ला'' बनाना है।
आसनसोल-दक्षिण से भाजपा प्रत्याशी निर्मल कर्मकार जी के क्षेत्र में प्रचार के दौरान, मुख्य मुद्दा मतदान का प्रतिशत रहा। जनता बदलाव चाहती है, ये पूरा बंगाल जानता है, किन्तु अगर मत का उपयोग ही नहीं किया गया, तो ये बदलाव आना असंभव है।आसनसोल के साथ-साथ, पूरे बंगाल की जनता से मेरा विनम्र अनुरोध है, कि चुनाव के सभी चरणों में ज्यादा से ज्यादा मतदान कर भारतीय जनता पार्टी की एक मजबूत सरकार का निर्माण कर, फिर से स्वर्णिम बंगाल बनाने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग अवश्य दें।..............................Kailash Vijayvargiya


पश्चिम बंगाल में सोमवार को पहले चरण के मतदान के साथ ही राज्य में सत्ता के गलियारों में सरकारों के बदलने, बने रहने और गठबंधन बनाकर फिर से सरकार बनाने के नये समीकरण बनना शुरू हो गए हैं। हालांकि राज्य में छह चरणों में चुनाव होना है, और फिलहाल पहले ही चरण का चुनाव हुआ है, लेकिन कई मायनों में यह चुनाव राज्य में ऐतिहासक परिवर्तन की ओर संकेत दे रहे हैं। बता दें कि राज्य में विधानसभा की 294 सीटों के लिए छह चरणों में चुनाव होना है।बंगाल हारे, तो वामदल होंगे भूली-बिसरी बात? ऐसे में जीत सकती है बीजेपी, मुश्किल में ममता ?


दरअसल, पहले 35 सालों में वामपंथी शासन में रही बंगाल की जनता के लिए यह चुनाव, दूसरे राज्यों से विकास की तुलना के बीच पार्टियों के शासन को बदलने का भी मौका है। यकीनन बंगाल, वामपंथी व्यवस्था जी भरकर देख चुका है, और उससे आजीज आकर ही राज्य की जनता ने 2011 में ममता बनर्जी को मौका दिया था, लेकिन इसी बीच, औद्योगिकरण, विकास, भ्रष्टाचार, रोजगार, शारदा चिटफंड घोटाला, नारद स्टिंग ऑपरेशन जैसे मुद्दों से जनता का भरोसा ममता सरकार से भी उठा है, फिर हाल ही में, फ्लाई ओवर वाली घटना ने ममता सरकार के भ्रष्टाचार की पोल ही खोल दी है।



जाहिर है, ये तमाम मुद्दे जनता को सरकार बदलने के लिए हवा तो तैयार करते ही हैं। यही नहीं उससे भी बढ़कर है, औद्योगिकरण के घटते स्तर से लोगों में आई हताशा, जहां राज्य में शिक्षित बेरोजगारों की लगातार बढ़ती संख्या ने एक अजीब सा माहौल पैदा किया हुआ है।
बहरहाल, इधर सियासी गलियारों में सीपीआईएम से कांग्रेस के नजदीक होने की आहट, हां-ना करते हुए गठबंधन के रूप में सामने आई है। क्या इस गठबंधन को देखकर यह अटकलें लगाई जा सकती हैं कि कांग्रेस को पानी पी-पीकर गरियाने वाले वामदल, खासकर सीपीआईएम को अब खुद पर इतना भी भरोसा नहीं रहा है कि वह अपने पिछले दशकों के सुशासन की खूबियों और काम के बूते, बंगाल में दोबारा सत्ता में वापसी कर पाए?
बहरहाल, इधर सियासी गलियारों में सीपीआईएम से कांग्रेस के नजदीक होने की आहट, हां-ना करते हुए गठबंधन के रूप में सामने आई है। क्या इस गठबंधन को देखकर यह अटकलें लगाई जा सकती हैं कि कांग्रेस को पानी पी-पीकर गरियाने वाले वामदल, खासकर सीपीआईएम को अब खुद पर इतना भी भरोसा नहीं रहा है कि वह अपने पिछले दशकों के सुशासन की खूबियों और काम के बूते, बंगाल में दोबारा सत्ता में वापसी कर पाए?


यकीनन यह बड़ी बात है कि जिस वामपंथ ने बीते कई दशकों में बंगाल में अपनी सरकारें चलाई, उसे ममता को हराने के लिए उस कांग्रेस की शरण लेनी पड़ रही है, जिसकी खुदकी सरकारें देश के कई राज्यों से सिमट रहीं हैं और उसे अपना अस्तित्व बचाना भारी पड़ रहा है। क्या इसे मोदी लहर के बीच बिहार में लालू-नीतीश की एकजुटता के परिणाम की सीख माना जाए? या खुदसे भरोसा उठ जाना, या फिर बंगाल की जनता में लगातार बदलाव के प्रति उठ रहे ज्वार से पैदा हुआ भय? निश्चित ही यह सवाल तो है, जिससे मुंह नहीं चुराया जा सकता।


इधर, जहां तक बीजेपी की बात की जाए तो बंगाल की सत्ता में ''कमल'' का खिलना आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है। आसान इसलिए नहीं है क्योंकि सांप्रदायिकता, असहिष्णुता, पुरस्कार वापसी, रोहित वेमुला का मुद्दा, और जेएनयू जैसे मामले तो हैं, जो सरकार की छवि खराब करने में सफल रहे हैं, जाहिर है यह मुद्दे बंगाल के लिए अछूते भी रहे, तो विपक्षी दल बीजेपी को इसकी छाया से बाहर नहीं आने देंगे, वहीं दूसरी ओर राज्य में ''कमल'' खिलने की संभावना पर बात की जाए, तो कहा जा सकता है, बंगाल के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक ढांचे में बदलाव कर रही जनता जब 35 सालों के वामदलो के शासन को हटा सकती है, तो फिर पांच साल पुरानी ममता सरकार को हटाना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं है।


फिर, इस राजनीतिक मंथन में सवाल यह भी उठता है कि क्या बंगाल चुनाव वामदलों के लिए प्रासंगिकता और अस्तित्व का सवाल है? जिसमें कांग्रेस भी शामिल है? यकीनन वामदल यदि बंगाल में सिमटते हैं या पिछड़ते हैं, तो फिर उसकी प्रासंगिता, या तो संस्थानिक रह जाएगी, या फिर एकदम हाशिये पर चली जाएगी।
इधर, जैसा की पहले कहा, यहां बीजेपी का जीतना यानी की ''कमल'' खिलना मौसम पर निर्भर करता है, और वह मौसम जनता के मूड की बात है, संभव हो, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के दर्शन में रमते हुए वे हर पांच साल में बदलाव की ओर सिर उठाकर देखें, जबकि ममता के प्रति ''ममता'' तो उनकी बीते पांच सालों में किए गए काम से दिलों में लौटेगी और ईवीएम पर ''वोट का प्यार'' बनकर साबित होगी।.......
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Tanmay Modh
