
Mohan Bhagwat ji
"कौन सवर्ण कौन दलित... कौन अल्पसंख्यक कौन बहुसंख्यक... कौन अगड़ा कौन पिछड़ा... जब तक देश की व्यवस्था तंत्र के लिए देश की जनता में यह भेदभाव महत्वपूर्ण रहेगा योजनाएं राजनीतिक तुस्टिकरण के लिए बनेंगी ..राष्ट्रहित के लिए नहीं।
अगर देश की व्यवस्था तंत्र के लिए उपर्युक्त वर्गीकरण महत्वपूर्ण है तो केवल इसलिए क्योंकि व्यवस्था तंत्र में समाज द्वारा चयनित प्रतिनिधि देश की जनता का नहीं बल्कि वर्ग विशेष, समुदाय अथवा किसी संकुचित व कुंठित मानसिकता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और इसलिए, व्यवस्था में किसी भी तरह के परिवर्तन की शुरुआत समाज से ही हो सकती है।
व्यवस्था तंत्र में समाज का प्रतिनिधित्व अगर सामाजिक नेतृत्व करता है तो समाज, सामाजिक प्रतिनिधि और व्यवस्था तंत्र की मानसिकता और समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण को बदलने के लिए सामाजिक नेतृत्व का परिवर्तन ही एक मात्र विकल्प बचता है; यह प्रक्रिया जितनी सरल प्रतीत होती है उतनी ही कठिन है पर आवश्यकताएं ही अपने प्रयास से कठिन को सरल बनाती हैं, इसलिए, बात यह नहीं की व्यवस्था में परिवर्तन संभव है अथवा नहीं बल्कि बात केवल इतनी सी है की क्या हम आज व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस कर पा रहे हैं या नहीं?
भारत विविधताओं का देश है जहाँ वर्ण, वर्ग और विचारधारा की विविधताएं हैं, ऐसे में, अगर विविधताओं के बजाये एकता के कारकों को महत्वपूर्ण बनाया जाये तो न केवल व्यवस्था तंत्र की योजनाएं और अधिक प्रभावशाली होंगी बल्कि देश की एकता और अखंडता को भी बल मिलेगा, पर दुर्भाग्यवश, हमें करना क्या था और हम कर क्या रहे हैं !
अगर ईश्वर सत्य है और धर्म उसी सत्य की प्राप्ति का मार्ग तो इस मिटटी के संस्कृति ने हमारे संस्कारों को सत्य का सम्मान और सत्यपथ की स्वीकृति सिखाई है, फिर सत्य का प्रारूप मान्यताओं के लिए चाहे जो हो, ऐसे में, अगर आज धार्मिक होना साम्प्रदायिक माना जाने लगा है तो इसका अर्थ केवल यही है की वर्तमान के धर्म की समझ ही विकृत है तभी परिस्थितियां इतनी वीभत्स है।
राष्ट्रीय स्तर पर देश को आज एक ऐसा नेतृत्व चाहिए जो न केवल समाज में विधि व्यवस्था के प्रति विश्वसनीयता का कारन दे बल्कि समाज के लोगों में भी नयी ऊर्जा, स्फूर्ति और आत्वविश्वास का संचार करे और यह तभी संभव है जब देश अपने नेतृत्व का दायित्व किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि को नहीं बल्कि सामान्य जनता को दे।
राजनीतिक दल का प्रतिनिधि भी इस देश का ही सामान्य जनता है पर देश का हर सामान्य जनता जरुरी नहीं की देश के किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधि हो ; हाँ, समाज के राजनीतिकरण के इस दौर में जब लोगों के लिए राष्ट्र से अधिक राजनीति महत्वपूर्ण हो गयी है तो स्वाभाविक है की ऐसा नेता खोज पाना सरल न होगा, पर इसे सरल बनाना होगा क्योंकि आवश्यकताओं का कोई विकल्प जो नहीं होता।
हम राम मंदिर बनाने की बात तो करते हैं पर राम राज्य लाने की कोई कोशिश नहीं करते , अगर समय के सन्दर्भ के परिवर्तन ने यह आवश्यक बना दिया है की एक बार फिर यह स्थापित किया जाए की आखिर श्री राम हमारे इष्ट क्यों हैं तो हमें राम राज्य की पुनः स्थापना के प्रयास से इस संशय को मिटाना होगा , क्योंकि राम राज्य की व्यवस्था ही वह कारन थी जिसने मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम को हमारा आदर्श और आराध्य बना दिया ; दुर्भाग्यवश, आज हमें श्री राम तो याद हैं पर उनके राज्य की आदर्श व्यवस्था का हमारे लिए कोई महत्व नहीं।
हम राम राज्य भी लाएंगे और अयोध्या में श्री राम मंदिर भी बनवाएंगे पर उसके पहले इस देश को श्री राम का मंदिर बनाना होगा; श्री राम तो हमारे प्रिय हैं पर क्या कभी सोचा है की हम श्री राम के प्रिय हैं भी या नहीं? कम से कम, वर्तमान के भारत के कृत और मानसिकता को देखकर यह संशय स्वाभाविक है।
हनुमान श्री राम के प्रिय इसलिए थे क्योंकि उनके ह्रदय में श्री राम का वास था क्या आज भारत वंशियों के ह्रदय में श्री राम के लिए जगह बची है, शायद नहीं, लोभ, स्वार्थ, द्वेष और ईर्ष्या से सब इतने संक्रमित हैं की लोगों ने धर्म को आडम्बर और श्री राम को राजनीतिक हथियार बना दिया है; तभी सब राजनीती से खुश हैं और देश तथा देशवासियों की किसी को सुध ही नहीं;
आखिर ऐसा धर्म किस काम का जो मनुष्य के लिए केवल सैद्धान्तिक हो, ऐसी व्यवस्था किस काम की जो राजनीती का पोषण और जनता का शोषण करने पर केंद्रित हो, ऐसा विकास किस काम का जिससे देश आगे बढ़ने के बजाये पीछे जाए और ऐसा लोकप्रिय नेता किस काम का जिसमें अपने काम से महत्व कमाने की क्षमता न हो और जो अपने महत्व के लिए प्रचार तंत्र पर आश्रित हो; क्या ऐसे हम भारत को उसके परम वैभव तक पहुंचा पायेंगे?
...कभी समय मिले तो इस विषय में सोचियेगा; यह आवश्यक है क्योंकि आखिर यह देश हमारा है और वर्तमान होने के नाते इसके भविष्य के निर्णय का अधिकार हमारा जो है !"