कोई भी यात्रा गलत दिशा से सही गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकती,फिर बात चाहे गौ रक्षा और गौ हत्या की हो !


"अगर बात केवल गौ रक्षा और गौ हत्या की हो रही है तो इसका अर्थ केवल यही है की हम अब तक समस्याओं को समझ नहीं पाए हैं क्योंकि ध्यान का विषय किसी पशु के शोषण अथवा उत्पीडन की नहीं बल्कि मनुष्य के पाशविक प्रवृति पर केंद्रित होना चाहिए।
जानवरों की बात छोड़िये यहाँ तो हालात ऐसे हैं की इंसान के लालच और स्वार्थ से खुद इंसान त्रस्त है फिर प्रकृति, पर्यावरण और पशु की क्या कहें। ऐसे में, जब समस्या ही समझ के परे हो तो प्रतिक्रियाओं से हो सकता है की हम किसी हद तक समस्याओं को नियंत्रित कर भी लें तो भी उनका पूरी तरह से निवारण संभव ही नहीं क्योंकि जब तक किसी भी समस्या के मूल पर ध्यान केंद्रित न किया जाए, प्रयास समस्या के प्रभाव में उलझकर विचलित ही होता रहेगा और यही आज हो भी रहा है, फिर, विषय चाहे जो हो।
कोई भी यात्रा गलत दिशा से सही गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकती फिर बात चाहे एक राष्ट्र के रूप में हमारी विकास यात्रा की ही क्यों न हो। समस्या तब और भी गंभीर हो जाती है जब सामाजिक मानसिकता राजनीति से संक्रमित हो क्योंकि तब राष्ट्रीयता की व्याख्या भी राजनीति द्वारा लाभ के लिए विवाद का विषय बना लिया जाता है , ऐसे में, राष्ट्र और राष्ट्रीय हितों पर राजनीतिक लाभ भारी पड़ता है।
जब समाज व्यवस्था तंत्र के पदों के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनता है तो उन्हें यह समझना होगा की पदों का प्रभाव चाहे जितना भी हो उनकी शक्ति की सार्थकता और प्रयास की सफलता के लिए पदस्थापित व्यक्ति की मानसिकता निर्णायक होती है क्योंकि उसी के पास शक्ति के प्रयोग के निर्णय का अधिकार होता है , ऐसे में, अगर समाज अपने सचेतन निर्णय से किसी मतान्ध को सामाजिक नेतृत्व का दायित्व सौंप दे तो पदों को प्राप्त संवैधानिक शक्तियां भी समाज और राष्ट्र के विकास के लिए पर्याप्त नहीं होती उल्टा अपने राजनीतिक प्रयोगों के कारन वही समाज और राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या बन जाती है।
भारत विविधताओं से परिपूर्ण एक विशाल देश है और ऐसे में यह स्वाभाविक है की यहाँ समस्याएं भी कई होंगी जिनके समाधान के लिए उनके प्रति दृष्टिकोण की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ; संविधान के नियमों ने प्रक्रिया बनाई है पर अपने चयनित प्रतिनिधियों के माध्यम से तात्कालीन समाज अपने विवेक के स्तर को साबित करता है ; संविधान के नियम सामाजिक नेतृत्व के लिए सामर्थ तय करते हैं पर समाज का नेतृत्व कौन करेगा यह तात्कालीन समाज का विवेक तय करता है, ऐसे में, अगर कोई समाज अपने सचेतन निर्णय से सामाजिक नेतृत्व की भूमिका के लिए पात्र की योग्यता से अधिक उसके लोकप्रियता को निर्णय का आधार मान ले तो समाज के वैचारिक पतन की इससे अधिक स्पष्ट भला और क्या प्रमाण हो सकती है ? 
निश्चित रूप से ऐसा समाज दुर्दशा का पात्र होता है और ऐसे राष्ट्र का विषय उसके वर्त्तमान के लिए चिंता का कारन।अगर हम भारत के परम वैभव की कामना करते हैं तो हमारे प्रयास भी वैसे ही होने चाहिए अन्यथा हमारी कामना ही हमारे कष्टों का कारन बनेगा !"...................Mohan Bhagwat ji · 
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